विवेक चूड़ामणि | आदि शंकराचार्य | VIVEK-CHUDAMANI by Adi Shankracharya
वेदान्त के प्रकरण ग्रंथों में विवेक चूडामणी निसंधे सरवाधिक सहज, सरल तथा लोगप्रिय कृती है। कहते हैं कि यही श्रिमत शंक्राचारे द्वारा रचित ग्रंथों में अंतिम है। स्वामी विवेकानन्द जी को ये ग्रंथ अत्यंत प्रिय था। उनके पत्रों तथा व्याख्यानों में कई स्थानों पर इस ग्रंथ के उधरन दीख पड़ते हैं। प्रस्तुत है विवेक चुणामनी। जो मन बुद्धी के अतीत होकर भी वेदांत के समस्त सिधान्तों के विशय है उन परमानन्द मैं ब्रह्म सुरूप सद्गुरू श्री गोविंद को मैं प्रणाम करता हूँ प्राणियों के लिए सरप्रथम तो मनुष्य देह प्राप्त करना ही अत्यंत दुरलब है
उसमें भी पुरुष शरीर उसमें भी ब्रह्मनत्व के संसकार उसमें भी वैदिक धर्म में प्रवृत्ती, उसमें भी शास्त्र के आत्म अनात्म विचार रूपी तात्परे का सम्यज्ञान, उसमें भी प्रत्यक्ष अनुभूती, उसमें भी ब्रह्म में निरंतर स्थिती, ये उत्रोत्तर दुरलब हैं। इस प्रकार सैकडों करोड जन्मों के सत्कर्म रूपी पुण्यों के बिना मुक्ति नहीं मिलती। मनुष्य शरीर में जन्म, आवागमन से मोक्ष प्राप्ति की इच्छा, मुमुक्षा और महापुर्शों का संग ये तीनों चीजें अत्यंत दुर्लब हैं और ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होती हैं। किसी प्रकार ऐसा दुरलब मानव जन्म और उसमें भी पुरुष शरीर तथा वेदांत तत्व पर विचार करने की ख्षमता प्राप्त करके भी,
ये प्रयास नहीं करता, वो ख्षनिक तथा मिथ्या वस्तुओं को ग्रहन करके अपना विनाश करने के कारण सचमुच का आत्महन्ता है। जो व्यक्ति ऐसा दुरलब मानव शरीर पा करके अपने परम स्वार्थ लाब मुक्ती की चेष्ठा में आलस्य करता है, उससे बड़ा मूड इस संसार में दूसरा कौन होगा? चाहे कोई कितने भी शास्त्र के उधरन देता रहे, चाहे कोई कितना ही देवताओं की प्रसन्नता के लिए याग यग्य करता रहे, चाहे कोई कितने ही शास्त्र विहित कर्मों का अनुष्ठान करता रहे, परन्तु जीव का आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूती हुए बिना ब्रह्मा के सौ कल्पों अर्थात करोणों वर्षों में भी मुक्ति नहीं हो सकती
वेदों की निश्चित घोशना है कि धन के द्वारा अमरत्त पाने की कोई आशा नहीं है इससे ये स्पष्ट हो जाता है कि सकाम कर्म मुक्ति का कारण नहीं हो सकता अतै विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वो बहाय जगत के विश्यों से सुख पाने की इच्छा को त्याग कर किसी सज्जन तथा उदार गुरू के पास जाए और उनके द्वारा उपदेश के रूप में बताई गई साधना में मन को लगा कर अपनी मुक्ति के लिए प्रयास करें। आत्मदर्शन में निष्ठा के द्वारा योगा रूड की अवस्था को प्राप्त करके व्यक्ति को संसार सागर में डूबी हुई अपनी आत्मा का स्वयम ही उध्धार करना चाहिए।
प्रयम ही उद्धार करना चाहिए। ऐसे धीर तथा विद्वान साधक को वेदांत में कथित आत्मा के श्रवण, मनन आदि का अभ्यास आरंभ करने के पश्चात, सभी सकाम कर्मों को त्याग कर जन्म-मृत्यु रूपी भवबंधन से मुक्त होने के लिए चेष्ठा करनी चाहिए। निष्काम कर्म के द्वारा आत्मस्वरूप की प्राप्ति नहीं बलकि चित्त की शुद्धी मात्र होती है आत्मान भूति तो करोणों कर्मों के द्वारा भी नहीं बलकि केवल विचार के द्वारा होती है जिस रसी में सर्प की भ्रांति होने के कारण ये महान अपितु गुरु की हितकर उक्तियों पर विचार करने से ही ब्रह्म तत्व की अनुभूति देखने में आती है।
साधना में फल सिद्धि के लिए उत्तम अधिकारी होने की विशेश आवशक्ता है। इस सिद्धि में स्थान, काल आदि उपाय उसके सहायक मात्र है। अतहें जिज्ञासु साधक को चाहिए कि वो उत्तम ब्रह्मवेत्ता दया सिंदु गुरू की शरण लेकर आत्मवस्तु पर विचार करता रहे। जो मेधावी विद्वान तथा शास्त्रों के पक्ष का मंडन और उसके विपक्ष का खंडन करने में कुशल है, ऐसे लक्षनों वाला व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी है जो आत्मा अनात्मा में विवेक कर सकता है जो वेराग्यवान है जो शमादी छै संपत्तियों से युक्त है ऐसे मुमुक्षु अर्थात मोक्ष की इच्छा रखने वाले व्यक्ति में ही
ब्रह्म के विशय में जिग्यासा करने की योग्यता मानी गई है इस ब्रह्म विद्या की सि विशय में जिग्यासा करने की योग्यता मानी गई है। इस ब्रह्म विद्या की सिध्धि में मनीशियों ने चार साधनाओं की आवशक्ता बताई है। इनके होने से ही ब्रह्म वस्तु में निष्ठा सदती है, इनके अभाव में नहीं सदती। नित्य अनित्य वस्तु के बीच विवेक को पहला साधन माना जाता है इसके बाद यह लोक तथा परलोक में भोगे जाने वाले कर्मफलों के प्रती वैराग्य की गणना होती है तीसरा साधन है शम आदी शट संपत्तियां और चोथा है मुमुक्षा अर्थात मुक्त होने की इच्छा
प्रम्म ही सत्य वस्तु है और जगत मिठ्या ऐसा द्रण निष्चय ही नित्या नित्य वस्तु विवेग कहलाता है वैराग्य क्या है इस लोग के देहादी भोगों से लेकर ब्रह्मा के लोग तक के समस्त अनित्य भोग्य वस्तुओं को देखने, सुन्य आदी की कामना को त्याग करने की इच्छा को वैराग्य कहते हैं। प्रतिक्षण विश्यों का दोश देखते हुए विचार के द्वारा उन्हें त्याग कर निरंतर अपने लक्ष ब्रह्म से मन को लगाए रखने को शम कहते हैं। ये छै संपत्तियों में प्रथम है। पाँचो ग्यानेंद्रियों तथा पाँचो कर्मेंद्रियों को संसार के विश्यों में से खीच कर, उनके अपने अपने गोलकों में स्थापित करने को दम, आत्मसययम कहते हैं।
मन की वृत्तियों को बहाय वस्तुओं से प्रभावित ना होने देना उत्तम उपरती, विश्यों से निवृत्ती माना जाता है। सभी प्रकार के दुखों को उन्हें दूर करने की चेष्टा और चिंता विलापादी किये बिना ही सेहन करना तितीक्षा कहलाती है। शास्त्रों तथा गुरू के उपदेश अक्षरशा सत्य हैं। ऐसी निष्चयात्मिका बुद्धी को संत गण श्रद्धा कहते हैं। इसी के द्वारा वस्तु अर्थात आत्मतत्व की प्राप्ती होती है। अपनी बुद्धि को केवल वेदांत की चर्चा में लगा कर तृप्ति पाना नहीं, अपितु उसे सर्वदा सर्वप्रकार के शुद्ध ब्रह्म में स्थापित किये रखना ही समाधान कहलाता है।
जीव के अहंकार से लेकर स्थूल शरीर तक के सारे बंधन अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं। अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा इन से मुक्त होने की तीवर इच्छा को मुमुक्षा यदि मंद या मध्यम प्रकार की हो तो भी वैराग्य तथा शम दम आदी छे संपत्तियों और गुरु कृपा की सहायता से वृद्धि पाकर मोक्ष फल प्राप्त कराती है। परन्तु जिस साधक में वैराग्य तथा मुमुक्षा की तीवरता विद्धिमान रहती है उसी में शम आदी छे संपत्तियां सार्थक तथा मोक्ष फल प्रदान करने वाली होती हैं। जिस साधक के चित्त में वैराज्य तथा मुमुक्षा इन दोनों की कमी दीख पड़ती हैं,
उसमें मरु भूमी में मरिचिका के समान शम आदी संपतियों का आभास मात्र होता है। आदि संपत्तियों का आभास मात्र होता है। अर्थात वैराज्य तथा मुमुक्षा के बिना ब्रह्म बोध की आकांशा दिवास्वपन के समान निक स्वरूप की खोज को भक्ति कहा जाता है। कुछ अन्य लोगों ने अपने आत्म तत्व की खोज को भक्ति कहा है। पुर्वोक्त चार साधनों से युक्त और तत्व को जानने का इच्छुक व्यक्ति ग्यानी गुरू के पास जाए, तो वे उसे भवबंधन से मुक्त कर देते हैं। ऐसे गुरू के पास जाए जो वेदि शास्त्र के ग्याता हो, निश्पाप हो, कामना शुन्य हो, ब्रह्म ज्ञानियों में श्रेष्ट हो, ब्रह्म चिंतन में तन्मय हो, इंधन समाप्ति हुई अगनी के समान शांत हो, अहेतुक दया सिंधु हो और विनम्र सज्जनों के मित्र हों।
ऐसे गुरू को भक्ति पूर्वक प्रनाम, नमरता तथा सेवा के द्वारा आराधना करके संतुष्ट करें और हाथ जोड़ कर उनके सम्मुक उपस्थित होकर इस प्रकार अपना ग्यातव्य विशय आत्म तत्व उनसे पूछें। आत्मतत्व उनसे पूछे। हे स्वामी, हे प्रनत दीन जनों के बंधु, हे करुणा के सिंधु, आपको मेरा प्रनाम है। मुझ भवसागर में पड़े हुए पर आप अपनी करुणा की वर्षा करने वाली सीधी द्रिष्टी डाल कर मेरा उध्धार करें। इस संसार रूपी वन की दुर निर्वारे दावागनी से दग्द दुरभाग्य रूपी आंधी से बुरी तरह कंपमान मृत्यू के भै से शर्णागत की रक्षा कीजिये क्योंकि मैं शर्ण लेने योग्य आपके अतरिक्त अन्य किसी को नहीं जानता
कुछ ऐसे शांत तथा सज्जन महात्मा होते हैं, जो स्वयं इस भीशन भवसागर को पार कर लेने के बाद अहेतुक दया से प्रेरित होकर, अन्य लोगों को भी पार करते हुए, वसंत रितु के समान सब का हित करते हुए इस जगत में निवास करते हैं। परते हुए इस जगत में निवास करते हैं। जैसे सूरी की तीक्षण किरणों से तप्त पृत्वी को चंद्रमा स्वयं ही अपनी शीतल किरणों से तृप्त कर देता है, वैसे ही स्वयं प्रवर्त होकर दूसरों के कष्टों के निवारण में तप्पर रहना ही इन महापुरुषों का स्वभाव है। हे प्रभो, मुझ संसार ताप की दावागनी की ज्वालाओं से तप्त को,
अपने ब्रह्मानंद रस की अनुभूति से युक्त, पवित्र, अतिशीतल तथा युक्तिपूर्ण, अपनी वाणी रूपी कलश से निश्रित, कानों को आनंद प्रदान करने वाले वाक्याम्रत् से सिंचित कीजिए। धन्य है वे लोग जो शण भर के लिए भी आपकी दृष्टि में आकर पात्र के रूप में स्वीकृत हो जाते हैं। इस भवसागर को मैं कैसे पार करूँगा या मेरी क्या गति होगी, मेरे लिए कौन सा उपाय है? ये सब मैं कुछ भी नहीं जानता, कृपया मेरी रक्षा कीजिए, मेरे संसार दुख का नाश कीजिए। गुरू को चाहिए कि इस प्रकार संसार रूपी दावानल के ताप से दग्ध होकर, अपनी शरण में आए हुए शिष्य को अपनी करुणा से द्रवित हुई द्रिष्टी से देख कर तत्काल अभय प्रदान करें।
वे गुरू ऐसे मुमुक्षु को कृपा पूर्वक आत्म तत्व का उपदेश प्रदान करें, जो अनन्य भाव से शरणागत हो, जो सम्यक रूप से आज्या पालन में तत्पर हो, जिसका चित्त शांत हो जो इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका हो हे विद्वान, तु भैभीत मत हो तेरा विनाश नहीं होगा संसार रूपी सागर से पार जाने का उपाय है अब मैं तुझे वो मार्ग दिखाता हूँ जिस पर चल कर योगी लोग इसके पार चले गए। संसार रूपी भय का नाश करने वाला एक महान उपाय है। इसके द्वारा तु संसार सागर को पार करके परम मानन्द की उपलब्धी करेगा। वेदांत के तातपरे पर विचार करने पर उत्तम ज्ञान उत्पन्न होता है तदुपरांत उसके द्वारा संसार रूपी दुख का समूल नाश हो जाता है
वेदों की वाणी श्रद्धा, भक्ति तथा ध्यान योग को मुमुक्षु के लिए मुक्ति पाने का साक्षात कारण बताती है। जो कोई भी इन तीनों साधनों में निष्ठापूर्वक लगा रहता है, वो इस अज्ञान द्वारा कलपित देह बंधन से मुक्त हो जाता है। तू वस्तुतह परमात्मा ही है, परन्तु अज्ञान से जुड़ जाने के कारण इस मैं मेरा रूपी अनात्मा के बंधन में पढ़ गया है। और इसी से तेरा जन्म मृत्यू रूपी संसार चक्र चल रहा है। विवेक विचार द्वारा उत्पन आत्मज्ञान की अगनी से अहंकार आदी सारे अज्ञान कारे को जला डाल। शिष्य के प्रश्न शिष्य ने कहा, हे प्रभु, मैं आपसे ये प्रश्न पूछता हूँ,
कृपया इसे सुनिये, आपके मुख से इसका उत्तर सुनकर मैं कृतार्थ हो जाओंगा। कृपया बताईये, बंधन क्या है, ये कैसे आया है? ये कैसे स्थित है? इससे मुक्ति का क्या उपाय है? अनात्मा क्या चीज है? और परमात्मा क्या है? इन दोनों आत्मा अनात्मा के बीच विवेक कैसे हो? आत्मा अनात्मा के बीच विवेक कैसे हो? गुरु बोले, तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरे कारण तेरा कुल पवित्र हुआ, क्योंकि तू अविध्या के बंधन से मुक्त होकर अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त करने का इच्छुक है। पिता का रुण मोचन करने वाले तो पुत्र आदी हो सकते हैं परन्तु अविध्यामय संसार के बंधन से मुक्त करने वाला तो
स्वयम को छोड़ दूसरा कोई नहीं होता सिर्पर रखे हुए भार आदी के द्वारा हो रहे कश्ट से दूसरे लोग छुटकारा दिला सकते हैं परन्तु भूक प्यास आदी से उत्पन्न होने वाला दुख, स्वयम के भोजन आदी किये बिना, अन्य किसी के द्वारा दूर नहीं किया सकता। अन्य कोई कर्म करने से वो निरोग होते हुए नहीं दिखता। जैसे चंद्रमा का स्वरूप किसी अन्य की आखों से नहीं, बल्कि अपनी ही आखों द्वारा देखकर समझा जा सकता है। वैसे ही आत्मा रूपी वस्तु का स्वरूप किसी विद्वान के द्वारा नहीं, अपितु अपनी ही ज्ञान द�रिष्टी से जानने योग्य है। अविद्या कामना कर्म के चक्र आदि का बंधन सैकडों करोड युगों में भी अपने प्रयास के बिना भला कौन दूर कर सकता है।
मोक्ष की सिद्धी योग या सांख्य या कर्म अथवा शास्त्र अध्यन के द्वारा नहीं अपितु केवल ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व बोध के द्वारा ही संपन्न होती है वीना का सौंदर तथा उसके तारों को बजाने की निपुनता लोगों को आनंद देने के साधन मात्र है उसके द्वारा साम्राज्य मुक्ति की उपलब्धी नहीं होती। भाषा का ज्यान, शब्द संयोजन की कुशलता, शास्त्रों की व्याख्या में निपुनता, तथा इसी तरह की विद्वता, विद्वानों की मुक्ति के हेतु नहीं, अपितु भोग के साधन हैं। मुक्त के हेतु नहीं, अपितु भोग के साधन हैं। यदि परतत्व ब्रह्म का ज्ञान ना हो, तो शास्त्र का अध्यन निश्पल है। और परतत्व का ज्ञान हो जाए, तो भी शास्त्र का अध्यन निश्पल ही है।
(18:19) शब्दों का जाल रूपी शास्त्र, चित्त को भ्रमित करने वाला विशाल वन है। अतय व्यक्ति को चाहिए कि वो ज्ञानी व्यक्ति के पास से प्रयास पूर्वक आत्मा का तत्व जान ले। ग्यान रूपी आउशधी को छोड़ वेदों तथा शास्त्रों से क्या लाब? मंत्रों तथा आउशधियों से क्या लाब? आउशधी का सेवन किये बिना केवल आउशधी शब्द का उचारण करने मात्र से रोग दूर नहीं होता.
उसी प्रकार अपरोक्ष अनुभूती हुए बिना केवल ब्रह्म शब्द के उच्चारण मात्र से मोक्ष की प्राप्ती नहीं होती। जगत के दृश्य पदार्थों का विलय यानि मिठ्यात्व का बोध किये बिना और आत्मा का तत्व जाने बिना ब्रह्म शब्द का उच्चारण मात्र करने से व्यक्ति को भला मुक्ति कैसे मिल सकती है, अर्थात नहीं मिल सकती। शत्रुओं का संहार किये बिना तथा संपून पृत्वी की संपदा को प्राप्त किये बिना, मैं राजा हूं, ऐसा कहने मात्र से कोई राजा नहीं बन सकता। नहीं बन सकता। जैसे धर्ती में गड़ा हुआ धन उसे पुकारने मात्र से नहीं मिलता, अपितू उसे प्राप्त करने के लिए ज्यानी व्यक्ति से सुनने, मिट्टी को खोदने, उपर के पत्थर आदी को हटाने और धन को निकालने की आव�े अहंकार आदी माया से मुक्त विशुद्ध आत्मा स्वरूप का बोध भी केवल तरक वितरक से नहीं, अपितु ब्रह्म ज्ञानियों द्वारा प्रदत्त उपदेश तथा उसके मनन, ध्यान आदी हो जाने पर व्यक्ति स्वयम ही उसे दूर करने की चेष्टा करता है, वैसे ही विवेकवान व्यक्ति का कर्तव्य है कि वो भवबंधन से मुक्त होने के लिए स्वयम ही सर्वप्रकार से प्रयत्न करें।
गुरु द्वारा आश्वासन तथा प्रोथसाहन। आज तुमने जो प्रश्न किया, वो उत्तम शस्त्रग्यों द्वारा समर्पित, संग्षिप्त, गंभीर तात्पर इसे युक्त और मुमुक्षुं द्वारा जानने के योग्य है। हे विद्वान शिष्य, अब मैं जो कुछ कह रहा हूं, उसे ध्यान से सुनो, क्योंकि इसे सुनकर तुम ततकाल भवबंधन से मुक्त हो जाओगे। आत्मज्ञान के साधन समस्त अनित्य विश्यों के प्रती तीवर वैराज्य को मोक्ष प्राप्ती का प्रथम कारण उपाय बताया गया है। इसके बाद शम, दम, तितीक्षा तथा शुतिविहित सकाम कर्मों के पून त्याग को उसका उपाय बताया गया है इसके बाद मुनी अर्थात मननशील साधक को गुरू से आत्मा के स्वरूप के विशय में वेदान्त के महाकाव्य सुनना चाहिए। उसके बाद उसका मनन करना चाहिए। और फिर दीर्ग काल तक नित्य निरंतर उस आत्मा का ध्यान करना चाहिए। इसके बाद विद्वान साधक निर्विकल्प पर ब्रह्म को प्राप्त करके इसी जीवन में निर्वान का सुख अनुभव करता है।
जिस आत्मा तथा अनात्मा के बीच भेद को तुम्हें विचार पूर्वक समझने की आवशक्ता है, अब मैं वही कहता हूँ, इसे ठीक से सुनकर अपने चित्त में दृड़ता पूर्वक धारण करो। मज्जा, अस्थी, मेद, मास, रक्त, चर्म वा त्वचा नामक धातुओं द्वारा जुड़े पाव, जंगे, सीना, हात, पीठ, सिर इन सारे अंगों तथा उपांगों के द्वारा निर्मित और मैं तथा मेरा के रूप में प्रसिद्ध मुह के इस आश्रय को विद्वान लोग स्थूल शरीर कहते हैं। आकाश, वायू, अगनी, जल तथा पृत्वी ये सूक्ष्म पंच भूत हैं, जो एक दूसरे के अंशों से मिलकर स्थूल तथा स्थूल शरीर के गठन का हेतु बनते हैं।
का हेतु बनते हैं उनके सूख्षम पंच भूत गुण मिलकर भोकता जीव के सुख हेतु शब्द आदी स्पर्श, रूप, रस, गंध पांच विशय बनते हैं जो मूड जन इन विश्यों के अति दुर भेद्य आसक्ती रूपी महापाश से बन्धे हुए हैं वे अपने कर्मों रूपी दूत द्वारा बलपूर्वक खीचे जाकर नीचे तथा उपर के लोकों में आते जाते रहते हैं। जीव अपने अपने गुण के अनुसार क्रमशा, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पाँचों में से एक एक विशय में आबद्ध होकर मृत्यु को प्राष्टि से देखें तो भोग्य विशय काले नाग के विश्च से भी अधिक तीवर घातक होता है क्योंकि विश्च तो खाने वाले को ही मारता है
परन्तु ये विश्च आखों से देखने वाले को भी मार डालता है विश्चियों की आशा रूपी इस महा बंधन का त्याग करना अत्यंत कठिन है इससे मुक्त होने वाला व्यक्ति ही मुक्ति का अधिकारी है अन्य कोई भी यहां तक की छहो शास्त्रों को जानने वाला भी नहीं जो मुक्ष मंद वैराग्य वाले होकर भी भवसागर से पार जाने की चेष्टा करते हैं, आशा रूपी ग्रहाय उनका गला पकड़कर तीवर वेग से हटाकर उन्हें बीच में ही डुबा देता है। जिस साधक ने तीवर वैराग्य रूपी तलवार से विशय कामना रूपी ग्रहाय का वद कर डाला है वो प्रत्येक बाधा से रहित होकर भवसागर के पार चला जाता है
रूप रसादी भोग्य विशयों के कठिन मार्ग पर चल रहे अशुद्ध बुद्धि वाले साधक के पग पग पर उसके साथ इस मृत्य को भी चलती जानो। फिर ये भी सत्य जानो कि हिताकांग्शी सच्चे गुरू के उपदेश तथा अपनी बुद्धि के सहारे चलने वाला साधक आत्मबोध रूपी फल सिध्धी प्राप्त कर लेता है। प्राप्त कर लेता है। यदि तुम्हें मोक्ष प्राप्ति की इच्छा है, तो विशियों को विश के समान बहुत दूर से ही त्याग दो। और संतोष, दया, क्षमा, सरलता, शम तथा दम इन गुणों का प्रतिदिन अमृत के समान आदर पूर्वक सेवन करो। अनादिकाल से अविध्या द्वारा किये गए बंधन से मुक्ति के लिए प्रतिक्षन, प्रयास रूपी अपने सच्चे कर्तव्य को छोड़ कर,
जो इस दूसरों के भोग्य रूपी अपनी देह के पोशन में आशक्त रहता है, वो इस कृत्य के द्वारा मानु आत्महत्या करता है। वो इस कृत्य के द्वारा मानु आत्महत्या करता है। जो व्यक्ति सारे समय शरीर के पालन पोशन में ही व्यस्त रहते हुए अपने आत्म स्वरूप का दर्शन करने का इच्छुक है, वो मानु घड़ियाल को ही काठ समझ कर उसे पकड़ कर नदी पार करना चाहता है। मुमुक्षु के लिए शरीर आदी के प्रति मोह ही महामृत्यु के सम्तुल्य है। जिसने मोह पर विजय प्राप्त कर ली वही मुक्ति पद का अधिकारी है। प्रति मोह रूपी महामृत्यु पर विजय प्राप्त करो। इस मोह को जीत कर ही मुनिगन विश्णू के उस परमपद की उपलब्धी करते हैं।
त्वचा, मास, रक्त, स्नायू, मेद, मज्जा तथा अस्थियों से निर्मित और मलमूत्र से परिपून ये स्थूल शरीर निंदनीय है। जीवात्मा के पूर्व कर्मों के संयोग के फलस्वरूप, पंची कृत स्थूल भूतों से आत्मा के भोग आयतन के रूप में ये स्थूल शरीर उत्पन हुआ है। उसकी जागरत अवस्था स्थूल पदार्थों के अनुभव पर आश्रित है। बहाई इंद्रियों के माध्यम से जीव स्वयम ही माला, चंदन, स्त्री आदी विभिद प्रकार के स्थूल पदार्थों का भोग करता है। इसलिए जागरत अवस्था में इस स्थूल शरीर का महत्व है। जिस स्थूल शरीर के आश्रे से व्यक्ति का सारा बहाई संसार चलता है, उसे ग्रिहस्त के घर के समान समझो।
जन्म मृत्यु आदि गुण, मोटापा, कृष्टा, बच्पन, योवन आदि अवस्थाएं, वण तथा आश्रमों के नियम, अनेक प्रकार के रोग, मान अपमान तथा अतिसम्मान आदी विशेष्टाएं स्थूल शरीर की ही हुआ करती हैं। कर्ण, त्वचा, नेत्र, घ्राण तथा जिव्वा विश्यों का बोध कराने के कारण ग्यानेंद्रियां कहलाती हैं। और वाणी, हाथ, पाउ, मलद्वार तथा लिंग की कर्म में प्रवृत्ती होने के कारण कर्मेंद्रियां कहलाती हैं। अपनी क्रियाओं की विभिन्नता के अनुसार मन, बुद्धी, चित तथा अहंकार अंतह करण कहलाते हैं। संकल्प विकल्प के कारण मन कहलाता है। पदार्थ की निष्चत अवधारणा के गुण से बुद्धी कहलाता है, शरीर आदी में मैं के अभिमान से अहंकार कहलाता है और अपने सुख साधन की खो�ं के रूप में या जल, तरंगों, बुल्बुलों आदी के रूप में विभिन आकरतियां धारण कर लेता है,
वैसे ही ये प्राण, क्रिया तथा स्थान के भेद से स्वयम ही प्राण, अपान, व्यान, उदान तथा समान नामक पांच वायू में परनित होता है। दान तथा समान नामक पांच वायू में परनित होता है। वाक आदी पांच कर्मेंद्रियां, श्रवन आदी पांच ज्ञानेंद्रियां, प्राण आदी पांच वायू, आकाश आदी पांच महा भूत, बुद्धी आदी अंतह करण चतुष्ठै, अविध्या, काम और कर्म इन आठ पुरियों को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। सुनो, सूक्ष्म शरीर को लिंग शरीर भी कहते हैं। ये अपंची कृत पंच भूतों से गठित है। वासनाओं से युक्त होकर कर्मफलों का भोग कराने वाला तथा अपने स्वरूप ज्ञान के अभाव में आत्मा की अनादि उपाध ही है।
इस सूक्ष्म देहा भिमानी जीव की जागरत से भिन स्वपन अवस्था होती है। इसमें बहाय करणों से रहित अपना ही रूप अंतह तक दीप्तिमान रहता है। स्वप्न में बुद्धि स्वयम ही जागरत काल की विभिन वासनाओं की साहता से कर्तत्व आदि भाव को प्राप्त करके विराजती है। यहां स्वप्न में ये परमात्मा स्वयम ही प्रकाशित होता है। इसकी सभी वस्तुओं का चिरकालीन द्रिष्टा केवल बुद्धि रूप उपाधियुक्त, बुद्धि द्वारा कलपित कर्म के लेश मात्र द्वारा लिप्त नहीं होता। क्यूंकि वो आत्मा असंग या निरलिप्त है, अताहे बुद्धि रूप उपाधि द्वारा कृत कर्मों के साथ जरा भी लिप्त नहीं होता।
जरा भी लिप्त नहीं होता। जैसे बढ़ाई अपने कार्य हेतु, बसुला आदी उपकरणों पर निर्भर रहता है। वैसे ही चैतन्य स्वरूप पुरुष, आत्मा के सारे व्यवहारिक कर्म इस लिंग सूक्ष्म शरीर पर ही निर्भर है। इसी लिए आत्मा इस लिंग शरीर से प्रिथक तथा असंग है। नेत्रों के गुण दोश के कारण ही द्रिष्ट में अंधता, अलपता, तीक्षनता आदी लक्षन दीख पड़ते हैं। वैसे ही गुंगापन, बहरापन आदी, मुख, कान आदी के दोश समझो। आत्मा के नहीं सांस लेना तथा छोड़ना जमभाई लेना छीकना कफ निकलना आदी और देह त्याग प्राण के कारे हैं भूक तथा प्यास प्राण के धर्म है
शरीर में अंतह करण चैतन्य के आभास तथा तेज से युक्त होकर नेतरादी इंद्रियों से और मैं देखने वाला तथा करने वाला हूँ इस वृत्ति के साथ स्थित रहता है। आपका भोगता हूँ इस बोध का अभिमानी समझना और यही अहंकार सत्वादी गुणों से जुड़कर जागरत, स्वप्न तथा सुशुप्ति नामक तीन अवस्थाओं को प दुखी होता है। ये सुख तथा दुख उस अहंकार के गुण है। सदा आनंद मैं आत्मा के नहीं। इंद्रियों के प्रिय विशय अपने स्वता के गुण से नहीं, अपितु आत्मा के कारण � सबका परमप्रिय है, अतर वो आत्मा सदानन्द है, उसको दुख कभी नहीं हो सकता। इस कारण सुशुप्ति, अर्थात प्रगाड निद्रा के समय भुग्य विश्यों से रहित आत्मा के आनन्द का अनुभव होता है।
आत्मा के इस आनंदमय स्वरूप के विशे में शुरुति, प्रत्यक्ष, एति है यानि परंपरा तथा अनुमान ये चार प्रमान है माया या अविध्या परमेश्वर की शक्ति है, इसे अव्यक्त भी कहते हैं ये अनादी माया ही सत्वादी तीनों गुणों से समन्वित होकर विश्व की कारण सुरूप है। ग्यानी लोग कारे जगत को देखकर उस माया का अनुमान करते हैं, जिसके द्वारा संपून जगत की सृष्टि होती है। तथा उभयात्मिका भी नहीं है। आत्मा से भिन्न नहीं, अभिन्न नहीं, तथा उभयात्मिका भी नहीं है। ये अंग युक्त नहीं, अंग रहित नहीं, तथा उभयात्मिका भी नहीं है। ये महादभुत और आवर्प का भ्रम दूर होता है
वैसे ही शुद्ध अद्वय भ्रम के साख्षातकार द्वारा इस माया का नाश होता है अपने कारें से प्रसिद्ध होने वाले सत्व, रज्ज, तम ये तीनों माया के ही गुण है रजो गुण से क्रियात्मक विक्षेप शक्ति प्रकट होती है जिसके द्वारा चिरकाल से विश्यों में प्रवर्ति का विस्तार हो रहा है। आसक्ति तथा दुख, सुक आदी जो मन के सारे विकार हैं, वे निरंतर इसी से उत्पन्न होते हैं। काम, क्रोध, लोब, दंब, दुरभाव, अहंकार, इर्शा, मातसर्य आदी, ये घोर लक्षन रजोगुण के हैं, जिनसे मनुष्य के मन में सारी सांसारिक प्रवृत्तियां उत्पन्न होती हैं। अता है रजोगुण ही बंधन का कारण है।
जिसके द्वारा वस्तु जैसी है, वैसी नहीं प्रतीत होती, वो तमोगुण की आवरत्ति या आवरण नामक शक्ति है। ये आवरण शक्ति ही व्यक्ति के संसार में आवागमन का कारण है, और रजोगुण से उद्भूत विक्षेप शक्ति कर्म में प्रवर्त्ति का कारण है। मेधावी होकर भी, शास्त्रग्य होकर भी, व्यवहारिक बुद्धि से संपन्न होकर भी, भी शास्त्रग्य होकर भी व्यवहारिक बुद्धि से संपन्न होकर भी अत्यंत सूख्षम आत्मा के लक्षन जानकर भी अनेक प्रकार से समझाए जाने पर भी तमो गुण की शक्ति से अभी भूत होने के कारण व्यक्ति आत्मा को असंदिक्द रूप से नहीं जान पाता ब्रहान्ति के वशी भूत होकर आरोपित पदार्थों को सत्य तथा सुखद मानता है उनके इनी गुणों का अवलंबन करता है
हाई भयंकर तमो गुण की आवरण शक्ति अत्यंत प्रबल है माया की इस आवरण शक्ति से जुड़े हुए व्यक्ति को अभावना, अज्ञान त्याग नहीं करता विपरीत ज्ञान, अविश्वास तथा संशय त्याग नहीं करता विक्षेप शक्ति सचमुच ही अगनित प्रकार से ब्राम्ति उत्पन्न करती है अज्ञान, आलस से जड़ता, निद्रा, प्रमाद, मूरता आदी तमोगुण के लक्षन है इनसे बंधा हुआ व्यक्ति कुछ भी नहीं समझता बलकि निद्रालू अथवा लकडी के खंबे के समान जड रहता है सत्वगुण जल के समान विशुद्ध है तो भी रजो गुण तथा तमो गुण के साथ मिश्रित होकर संसार में आवागमन का कारण बनता है
शुद्ध चैतन्य सुरूप आत्मा सूरे के समान सत्व गुण में प्रतिबिम्बित होकर जगत की समस्त जड़ वस्तूओं को प्रकाशित्व्मचर्य तथा आपरिग्रह, श्रद्धा, भक्ति, मुमुक्षा तथा देवी संपत्तियां और बुरे आच्रण का त्याग, ये सभी मिश्रित सत्व गुण के धर्म हैं। त्रिप्ति, अत्यंत आनंद, पर्मात्मा में निष्ठा जिनके द्वारा निरंतर आनंद रस का बोध होता रहता है ये विशुद्ध सत्व गुण के लक्षन है सत्व, रज तथा तम इन तीन गुणों द्वारा जिस अव्यक्त का वर्णन किया जाता है
वो आत्मा का कारण शरीर है जब इस कारण शरीर अभिमानी आत्मा का कारण शरीर है। जब इस कारण शरीर अभिमानी आत्मा को जागरत तथा स्वप्न से भिन्न उस अवस्था की प्राप्ति होती है, जिसमें इंद्रियां तथा बुद्धी की सारी वृत्तियां लीन हो जाती हैं, तो उसे सुशुप्ति अवस्था कहते हैं। सभी प्रकार के विश्यों के ज्ञान की निवर्ति और बुद्धी के बीज अर्थात सूक्ष्म रूप से आत्मा अर्थात अविद्या रूप कारण शरीर में निवास को सुश्युपती गहरी निद्रा की आवस्था कहते हैं। मैं कुछ भी नहीं जानता। ये पूरे जगत का अनुभव होने के कारण सभी को इसका बोध संभव है। देहे, इंद्रियां, प्राण, मन, अहंकार आदी हर तरह के विकार, इंद्रियों के शब्द, स्पर्श आदी विशय, सुख दुख, आकाश आदी पंच महाभूत और अव्यक्त तक संपून विश्व ब्रह्मान्ड ये सब अनात्मा है माया तथा महत तत्व से लेकर देह तक माया के कारे रूप सब कुछ मिठ्या तथा अनात्मा है
इसे तुम मरुमरिचिका के समान भ्रांती मात्र समझो अब मैं तुमको परमात्मा का स्वरूप विशेश रूप से बताता हूँ जिसे जान लेने के बाद मनुष्य बंधन से मुक्त हो जाता है और कैवल्य अवस्था को प्राप्त कर लेता है। अन्नमय आदी पंच कोशों से प्रिथक जागरत स्वप्न सुशुप्ति इन तीन अवस्थाओं का साक्षी मैं, मैं, बोध का नित्य आधार किसी चैतन्य तत्व का अस्तित्व है, जो जागरत, स्वप्न तथा सुशुप्ति, तीनों आवस्थाओं में बुद्धी की क्रिया, उसकी वृत्तियों की विद्यमानता तथा अभाव को मैं के रूप में जानता है, वही ये चैतन्य स्वरूप आत्मा है, वही ये चैतन्य स्वरूप आत्मा है।
जो स्वयम सब कुछ देखता है, पर जिसे कोई भी नहीं देखता, जो बुद्धी, प्राण, इंद्रियों आदी को चेतना देता है, पर बुद्धी आदी जिसे प्रकाशित नहीं कर पाते, वही चैतन्य स्वरूप आत्मा है। जो इस संपून स्थूल शुक्सम जगत में व्याप्त है, परन्तु जिसे कोई भी व्याप्त नहीं कर सकता, ये विश्व जिसकी छाया रूप है और जिसके प्रकाशित होने से ये सब कुछ प्रकाशित�पने अपने विश्यों में मानो प्रेरित होकर लगी रहती हैं वही ये चैतन्य स्वरूप आत्मा है जिस नित्य बोध स्वरूप के द्वारा अहंकार से लेकर स्थूल देह तक इंद्रियों के सभी विशय और सुख दुक आदी का घट आदी के समान ज्यान होता है
वो मैं रूपी आत्मा ही तुम्हारे जानने योग्य है ये अंतरात्मा ही वो नित्य, अखंड, सुख के अनुभव सरूप सर्वदा एक रूप, सभी विश्यों में बोध सरूप सनातन पुरुष है जिसकी इच्छा से वाक, वाण यादी इंद्रियां तथा पंच प्राण अपने अपने कार्यों में लगे �स करता है और अपने तेज के द्वारा इस संपून विश्व को प्रकाशित करता हुआ भी सूरे के समान उसके परे साक्षिवत स्थित रहता है। और देह, इंद्रियों तथा प्राणों के समस्त क्रिया कलापों का भी जाता है ये तप्त लोहपिंड में अगनी के समान उन मन आदी तथा क्रियाओं में नहित रहता है
तथा पि उसमें न कोई क्रिया होती है और नहीं कोई परिवर्तन ही आता है ये आत्मा नित्य है, न ये जन्म लेती है, न मरती है, न इसमें वृद्धी होती है न इसका ख्षय होता है और न इसमें कोई विकार आ्य है, ना ये जन्म लेती है, ना मरती है, ना इसमें वृद्धी होती है, ना इसका ख्षय होता है, और ना इसमें कोई विकार आता है। जैसे घड़े के फूट जाने पर भी उसमें व्याप्त आकाश नष्ट नहीं होता, वैसे ही इस शरीर की मृत्यु के बाद भी उसमें स्थितात्मा का नाश नहीं होता। प्रकृति अर्थात अव्याकृत तथा पंच महा भूत आदी कारण और विक्रति अर्थात शरीर से लेकर ब्रह्मांड तक उसके कारे से भिन्न ये शुद्ध ज्ञान स्वरूप निर्गुन परमात्मा बुद्धि के साख्षी रूप में इस अनंत सत असत को प्रकाशित करता हुआ जागरत स्वप्न सुशुप्ति अवस्थाओं में मैं मैं के रूप में लीला कर रहा है।
हे शिष्य तुम पुर्वोक्त लक्षन युग्त अपने आत्मसरूप को सैयमित मन के द्वारा निर्मल बुद्धि की कृपा से स्वयम में ये मैं ही हूँ ऐसा साक्षात अनुभव करो। और इस तरहें जन्म मृत्यू रूपी तरंगों वाले अपार संसार सागर को पार करके ब्रह्म स्वरूप में स्थित होकर कृतार्थ हो जाओ देहे आदी अनात्म वस्तुओं में मैं का बोध ही बंधन है जो अज्ञान द्वारा प्राप्त हुआ है और व्यक्ति के जन्म मृत्यु आदी कष्टों की प्राप्ती का कारण है। इसे ही वो इस अनित्य शरीर को सत्य मान कर इसमें एहम बोध रखते हुए विशेयों द्वारा इसका पोशन, शोधन तथा पालन में लगा रहता है।
तमोगुण अर्थात अज्ञान के द्वारा भ्रमित व्यक्ति को इस देहादी में आत्मबुद्धी पैदा होती है विवेक के आभाव में ही सर्प में रज्यू की धार्णा होती है जिसके फल स्वरूप व्यक्ति अपनी विपत्तियों में जा गिरता है अता हे सखे सुनो मिथ्यावस्तु को ग्रहण करना ही बंधन का कारण बन जाता है कि ग्रहणकाल में जैसे राहु विराट सूर्यमंडल को पूरी तोर से धख लेता है, वैसे ही माया की ये तमोगुण मै आवरण शक्ति, अखंड नित्य अद्वय ज्ञान शक्ति से प्रकाश मान, अनंत वैभवशाली आत्मा को आवरत कर लेती है। व्यक्ति निर्मल तेजो मै आत्मा स्वरूप जब अज्ञान से ढख कर तिरो भूत प्रतीत होने लगता है तब व्यक्ति भ्रांति वश अनात्म शरीर को ही मै समझने लगता है। इसके बाद रजोगुण की विक्षेप नामक प्रबल शक्ति व्यक्ति को काम क्रोधादी की रस्यों से बांध कर बहुत कश्ट देती है।
देती है। मूल अज्ञान से उत्पन्न महामोह रूपी मगरमच के जबड़े में पढ़कर दुर्बुद्धी तथा कुछित गती को प्राप्त हुआ जीव अपना आत्मज्ञान पाने का प्रयास भॵस्थाओं और कर्तव्य भुक्तरत्य रूपी उसके गुणों का अनुकरण करते हुए, इस अपार संसार समुद्र के विशय रूपी विश के प्रभाह में कभी डूपता, तो कभी उतरता हुआ भ्रमन करता रहता है। आत्मा को प्रकाशित करने लगती है। वैसे ही आत्मा के निष्चिद्र अज्ञान अंधकार द्वारा ढख दिये जाने पर प्रबल विक्षेप शक्ती मूड़ �ं के कारण ही व्यक्ति बंधन में पड़ा है
और इनी से भ्रमित होकर वो देह को ही आत्मा समझ कर संसार में भटकता रहता है इस संसार रूपी व्रिक्ष का बीज अज्ञान है देह में आत्म बुद्धी इसका अंकुर है आसक्ती इसकी कोमल पंक्तियां है कर्म जल है, शरीर तना है, पंच प्राण इसकी शाखाएं है, इंद्रियां इसका अग्रभाग है, शब्द, स्पर्श, रूपादी विशय इसके पुष्प हैं, और विभिन्न कर्मों द्वारा उत्पन अनेक प्रकार के दुख इसके फल हैं, जीवरूपी पक्षी इस संसार वृक्ष के फलों का भुकता है। अज्ञान से उत्पन देह आदी अनात्म बस्तुओं में तादात्मे रूपी इस बंधन को स्वाभाविक रूप से अनादी तथा अनंत कहा गीव के लिए जन्म, मृत्यू, रोग, वारधक्य आदि दुखों के प्रभाग की स्रिष्टी करता रहता है।
यह अग्यान बंधन ना तो अस्तर शस्त्रों से, ना वायू से, ना आगनी से, और ना करोणों कर्मों के द्वारा ही नष्ट हो सकता है। विधाता की कृपा से प्राप्त विवेक ज्ञान रूपी तीक्षन सुन्दर महा खड के बिना इसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। वेद प्रमाण में विश्वास तथा उनमें कथित कर्तव्य करमों में निष्ठा इनहीं के द्वारा व्यक्ति की चित्ट शुद्धी होगी। इस विशुद्ध चित्ट के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान होगा और इस ज्ञान के द्वारा ही संसार वृक्ष का समूल नाश होगा। जैसे कुए का जल अपनी ही शक्ति से उत्पन शैवाल समू के द्वारा आच्छादित हो जाता है,
उसी प्रकार आत्मा भी अपनी ही शक्ति से उत्पन अन्मय आदि पंच कोशों से आवर्त हो जाने के कारण प्रकाशित नहीं होती। उस शैवाल समू को हटा देने पर व्यक्ति के समक्ष प्यास का कश्ट दूर करने वाला तथा पीते ही ततकाल तृप्ति प्रदान करने वाला अत्यंत शुद्ध जल प्रकट हो जाता है। प्रदान करने वाला अत्यंत शुद्ध जल प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार विवेक बुद्धि के द्वारा पंच कोशों में आत्म बुद्धि नष्ट हो जाने पर, विशुद्ध, नित्य, आनंदमय, एकरस, अंतर्यामी रूप, सर्वश्रेष्ट, स्वयम जोती अंतरात्मा प्रकट हो जाती है। विचारवान व्यक्ति को संसार बंधन से मुक्ति हेतु,
आत्म अनात्म विवेक का भ्यास करना चाहिए। इस विचार के द्वारा ही, वो अपने सचिदानन्द ब्रह्म स्वरूप को जानकर, आनंदमाई हो जाता है। जैसे मुझ घास के छिलके को हटा दिया जाता है वैसे ही देह मन आदी सभी दृश्य पदार्थों में से विचार के द्वारा दृष्टा निरलिप्त निश्क्रिय आत्मा को प्रतक करके उसी में सब कुछ को विलीन करके जो आत्मा के साथ अभिन होकर रहता है वही मुक्त है। अन्न से उत्पन ये देह ही अन्मयकोष है। ये अन्न से जीवित रहता है और उसके अभाव में नष्ट हो जाता है। त्वचा, चर्म, मास, रक्त, अस्थी, विष्ठा आदि की राशी ये शरीीर नित्य शुद्धात्मा होने के योग्य नहीं है।
ये अन्मय कोश शरीर जन्म के पूर्व और मृत्यु के पश्चात भी विद्यमान नहीं रहता। ये क्षनिक अस्थित्वाला, क्षनिक गुणों वाला, सतत परिवर्तनशील सुभाव वाला है। सतत परिवर्तनशील सुभाव वाला है ये सर्वदा एक रूप नहीं रहता ये जड़ है और घट के समान कुछ काल के लिए दीख पड़ता है ये देहादी में होने वाले परिणाम या परिवर्तनों का दृष्टा रूप आत्मा कैसे हो सकता है अंग हीन होने पर भी जीवित रहता है इससे भी समझा जा सकता है अंग ही इन होने पर भी जीवित रहता है इससे भी समझा जा सकता है कि हाथ पामों से युक्त यह देह आत्मा नहीं है कि किसी-किसी अंग का नष्ट होने पर भी उस उस इंद्रीय की शक्ति के अधि नहीं, अपितु देह आदी का नियंता है।
देह उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं का साक्षी सत्स्वरूप आत्मा है। इस आत्मा का देह आदी से पार्थक्य स्वतही सिद्ध है। ये शरीर हड्डियों का धाचा है जिस पर मास का लेप किया हुआ है। ये मलादी से परिपून है और अतिंत दूशित है। ये शरीर स्वयम ही भला कैसे स्वयम से भिन अपना ग्याता यानि चर्बी, अस्थी तथा मलमूत्र की राशी शरीर में मूर्जन ही मैं बुद्धि लाते हैं, जबकि विचारशील व्यक्ति इन सबसे भिन परमार्थ तत्व आत्मा को ही अपने स्वरूप के रूप में जानते हैं। जड़ बुद्धि के लोग देह को ही मैं मांते हैं। शास्त्र पढ़कर आत्मा के विशय में जानने वाले कभी देह को और कभी प्राण, मन, बुद्धि से युक्त जीवात्मा को मैं मांते हैं।
परन्तु जिनोंने आत्म अनात्म का विचार करके आत्मा को विशेश रूप से जान लिया है। को विशेश रूप से जान लिया है ऐसे महत्मा लोगों की स्वयम में सरवदा मैं ब्रह्म हूँ ऐसी धारना बनी रहती है हे निर्बोध मनुष्य तुम इस तचा, मास, चर्बी, हड़ी, मलमूत्र की राशी शरीर में मैं बुद्धी को छोड़ दो और सब की अंतरात्मा स्वरूप निर्विकल्प ब्रह्म में अपनी मैं बुद्धि को छोड़ दो और सब की अंतरात्मा स्वरूप निर्विकल्प ब्रह्म में अपनी मैं बुद्धि को लगाओ और इस प्रकार परम शांति का अनुभव करो।


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